माना गहरे तक ज़मीं में गड़ा हूँ,
मगर खुश हूँ, कि अपनी जड़ों पर खड़ा हूँ ॥
झुकता हूँ मैं सिर्फ़ मेरे ख़ुदा के आगे,
तू मुश्किलों से पूछ कि मैं कितना कड़ा हूँ ॥
लोग अपने लिए ग़ैरों का नामोनिशां मिटा देते,
मगर अपने लिए हर बार मैं सिर्फ़ ख़ुद से लड़ा हूँ ॥
उतरा लहर-सा कभी समंदर के सीने पर,
कभी कश्ती की मानिंद अपने साहिल से बिछड़ा हूँ ॥
तुझे अब हर पल नयी रंगतों का शहर दिखता हूँ,
क्या मालूम तुझे हर पल में कितनी बार उजड़ा हूँ ॥
हर तूफ़ान ने चाहा मुझे पत्तों-सा उड़ा देना,
पर बरसों से इसी राह पर पत्थर बनकर अड़ा हूँ ॥
अनगिनत ख़्वाहिशों के आशियां मेरे दिल में हैं,
मैं हरदम सुलगती इन बस्तियों से बड़ा हूँ ॥
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