Saturday, November 5, 2011

मैं

माना गहरे तक ज़मीं में गड़ा हूँ,
मगर खुश हूँ, कि अपनी जड़ों पर खड़ा हूँ ॥

झुकता हूँ मैं सिर्फ़ मेरे ख़ुदा के आगे,
तू मुश्किलों से पूछ कि मैं कितना कड़ा हूँ ॥

लोग अपने लिए ग़ैरों का नामोनिशां मिटा देते,
मगर अपने लिए हर बार मैं सिर्फ़ ख़ुद से लड़ा हूँ ॥
उतरा लहर-सा कभी समंदर के सीने पर,
कभी कश्ती की मानिंद अपने साहिल से बिछड़ा हूँ ॥

तुझे अब हर पल नयी रंगतों का शहर दिखता हूँ,
क्या मालूम तुझे हर पल में कितनी बार उजड़ा हूँ ॥

हर तूफ़ान ने चाहा मुझे पत्तों-सा उड़ा देना,
पर बरसों से इसी राह पर पत्थर बनकर अड़ा हूँ ॥

अनगिनत ख़्वाहिशों के आशियां मेरे दिल में हैं,
मैं हरदम सुलगती इन बस्तियों से बड़ा हूँ ॥

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