Sunday, July 10, 2011
ज़िन्दगी से मुलाक़ात कीजिये
आइये, चलिए कदम दो कदम साथ मेरे,
संग मेरे ज़िन्दगी से मुलाक़ात कीजिये
मिलकर जरा गुफ्त गूं की शुरूआत कीजिये.
जहाँ सवालों जवाबों में मशगूल है दुनिया,
कोई गुम है भीड़ में, रहता है कोई तन्हां यहाँ,
ठहरिये जरा घडी दो घडी को
कभी खुद से भी बात कीजिये.
बदन भर सजाना संवरना न काफी,
कभी आत्मा को भी अवदात कीजिये.
सफ़र की न जाने कहाँ होगी मंजिल,
कहीं दिन गुजारें, कहीं रात कीजिये.
घडी दो घडी के यहाँ हम हैं मेहमां
मेहरबान! खातिर मदारात करिए.
खुले आँख तो सब नज़ारे हवा हों,
गुरूर आप इन पर न बेबात कीजिये.
करेंगे फ़क़त आंसुओं की तिजारत
न ज़ाहिर यहाँ सबपे जज़्बात कीजिये.
सँवारे संवरती नहीं ज़िन्दगी ये
हुजूर आप ही कुछ करामात कीजिये.
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मदारात -सत्कार ; अवदात- सवारियें
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