Sunday, March 27, 2011
फिर से
अँधेरा चीर के रौशनी आएगी फिर से,
ये शाख देखना लहलहाएगी फिर से.
खिज़ां से डर के बहारों के ख़्वाब मत छोड़ो,
गुलों पे आयेगी इक रोज़ ताज़गी फिर से.
ज़माना आजकल इतना बदल गया गोया,
कि लोग जी रहे मर मर के ज़िन्दगी फिर से.
हमारे दिल का दरीचा खुला ही रहता है,
किसी कि याद ही आये कभी कभी फिर से.
सुबह से शाम तलक सोचता रहा अक्सर,
कभी तो आदमी बन जाये आदमी फिर से.
जो ख़ुद को कर के हवाले नसीब के सोया,
उसे 'कौशिक" की शायरी जगायेगी फिर से.
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
0 comments:
Post a Comment