
अशांत सागर है ये मन मेरा पत्थर ना फेकों ए हमनशीं
दर्द की लहरें हैं, ना खेलो, दर्द ना मिल जाए कहीं
कसक बन के दिल में तुम हलचल सी करते हो
पास आकार भी ना अपने से बन के मिलते हो .
ठंडी आहों का भी असर तुम पर अब होता नहीं
मनुहार कर के भी तो ये दिल पिघलता नहीं .
छोडो रहने भी दो क्या जिरह करें साकी
अब मेरा 'मैं' तुम्हारे 'मैं ' से मिलते नहीं.
लो बुझा लेता हूँ अरमानों की इस कसकती लौ को
दफ़ना देता हूँ तुझमें ही इन दगाबाज़ चाहतों को.
प्यास बुझाने को मयखाने भी कहाँ बचे साकी
छू भी लें तो वो एहसास कहाँ बचे बाकी.
मुर्दे का कफ़न हूँ मैं भी जिसमें जेबें नहीं होती
मुंदी पलकों का अश्क हूँ जिसमें तपिश नहीं होती
टूटे खिलोने भी कहीं जुडा करते हैं भला..
फैंक दो दिल से कहीं दूर, चुभ ना जाए कहीं.
इस सागर में तुम पत्थर न फेंको ए हमनशीं
पत्थर न फेंको ए हमनशीं...........
1 comments:
Very Very Good.
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