Tuesday, February 22, 2011

मुहाजिर हैं मगर एक दुनिया छोड़ आए हैं
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं

हँसी आती है अपनी अदाकारी पे खुद हमको
बने हैं खाकशार और वो आसमां छोड़ आए हैं

जो एक पतली सड़क मेरे आसियें से जाती थी
वहीं ख़्वाबों को भटकता छोड़ आए हैं

वजू करने को जब भी बैठते हैं याद आता है
कि हम उजलत में जमाना का किनारा छोड़ आए हैं

उतार आए मुरव्वत और रवादारी का हर चोला
वो अपना हर किला छोड़ आए हैं

ख़याल आता है अक्सर धूप में बाहर निकलते ही
हम अपने गाँव में पीपल का साया छोड़ आए हैं

वो सरज़मीं वो खज़ाना दिलों का
ये सब कुछ था पास अपने, ये सारा जहाँ आए हैं

दुआ के फूल जहां तकसीम करते थे
गली के मोड़ पे हम वो शिवाला छोड़ आए हैं

बुरे लगते हैं शायद इसलिए ये सुरमई बादल
किसी कि ज़ुल्फ़ को शानों पे बिखरा छोड़ आए हैं

अब अपनी जल्दबाजी पर बहुत अफ़सोस होता है
कि एक खोली की खातिर राजवाड़ा छोड़ आए हैं

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