मुहाजिर हैं मगर एक दुनिया छोड़ आए हैं
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं
हँसी आती है अपनी अदाकारी पे खुद हमको
बने हैं खाकशार और वो आसमां छोड़ आए हैं
जो एक पतली सड़क मेरे आसियें से जाती थी
वहीं ख़्वाबों को भटकता छोड़ आए हैं
वजू करने को जब भी बैठते हैं याद आता है
कि हम उजलत में जमाना का किनारा छोड़ आए हैं
उतार आए मुरव्वत और रवादारी का हर चोला
वो अपना हर किला छोड़ आए हैं
ख़याल आता है अक्सर धूप में बाहर निकलते ही
हम अपने गाँव में पीपल का साया छोड़ आए हैं
वो सरज़मीं वो खज़ाना दिलों का
ये सब कुछ था पास अपने, ये सारा जहाँ आए हैं
दुआ के फूल जहां तकसीम करते थे
गली के मोड़ पे हम वो शिवाला छोड़ आए हैं
बुरे लगते हैं शायद इसलिए ये सुरमई बादल
किसी कि ज़ुल्फ़ को शानों पे बिखरा छोड़ आए हैं
अब अपनी जल्दबाजी पर बहुत अफ़सोस होता है
कि एक खोली की खातिर राजवाड़ा छोड़ आए हैं
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