Monday, February 14, 2011

नादान – गजल

नादां है नासमझ है परेशां है बेवजह
तन्हा किसी खयाल मे जीता रहा है वह


पाया है यूं जवाब सवाले हयात का
गुमसुम है, किसी बात पर करता नही जिरह


प्यासा है पर शराब का रखता नही गरज
अर्से से आपसार को पीता रहा है वह


काफ़िर है मगर इश्क़ से रखता है वास्ता
जीता नही सुकून से इन्सां किसी तरह


पहलू मे जहां खुद से भी रहता है गुमसुदा
वर्षों उसी नकाब को सीता रहा है वह


लड़ता है जमाने से क्यूं डरता नही बसर
घायल है मगर बेसबब करता नही सुलह


कहते हैं लोग बाग ये किस्सा यकीन से
कांटा था कभी बाग मे पायी नही जगह


हैरां है आफ़ताब भी शब है कि शाम है
जागा है सारी रात या आयी नही सुबह

0 comments:

Post a Comment

 

Prashant Kaushik © 2008. Design By: SkinCorner